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Pradeep Rajput
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उधर अयोध्या नगरी में सरयू नदी के तट पर यज्ञ मंडप में सोलह ऋत्विजों ने अश्वमेघ यज्ञ प्रारंभ कर दिया। यज्ञ पूर्ण होने पर राजा दशरथ ने ऋत्विजों को उचित दान दक्षिणा देकर संतुष्ट किया और उन्हें सम्मान सहित विदा किया। अश्वमेघ यज्ञ का पुण्यफल प्राप्त कर महाराज दशरथ मन में अत्यंत प्रसन्न हुए। सभी ब्राह्मणों के जानेपर महाराज दशरथ ने ऋषि श्रुंग से कहा, हे सुव्रत! अब आप मेरे कुल की वृद्धि के लिए उपाय कीजिये।
महाराज दशरथ से तब ऋषि श्रुंग ने कहा, हे राजन! मैं तुम्हारे लिए अथर्ववेद में वर्णित पुत्रेष्टि यज्ञ करूँगा, जिससे पुत्र प्राप्ति की तुम्हारी इच्छा पूर्ण होगी। यह कह पुत्र प्राप्ति के लिए, उन्होंने पुत्रेष्टि यज्ञ प्रारंभ किया, और विधिवत मंत्र पढ़ कर आहुति देने लगे। इस यज्ञ के अग्निकुंड से उस समय लाल वस्त्र धारण किये हुए एक पुरुष प्रकट हुआ, जिसके हाथ में स्वर्ण की परात थी जो चाँदी के ढक्कन से ढकी हुई थी।
अग्निकुंड से प्रकट हुए पुरुष ने महाराज दशरथ की ओर देख कर कहा – महाराज ! मैं प्रजापति के पास से आया हूँ, आपकी पूजा से प्रसन्न होकर उन्होंने मुझे ये पदार्थ आपको देने को कहा है। हे नरशार्दूल! यह देवताओं की बनाई हुई खीर है, जो संतान की देने वाली तथा धन और ऐश्वर्य को बढ़ाने वाली है, इसे आप लीजिये।
वह खीर लेकर महाराज दशरथ रनवास आये और उस खीर का आधा भाग रानी कौशल्या को दे दिया। फिर बचे हुए आधे का आधा रानी सुमित्रा को दिया। उन दोनों को देने के बाद जितनी खीर बची उसका आधा भाग देवी कैकेयी को दिया, उस अम्रुतोपम खीर का बचा हुआ आँठवा भाग कुछ सोचकर फिर सुमित्रा जी को दे दिया।
यज्ञ-समाप्ति के पश्चात् जब छः ऋतुएँ बीत गयीं, तब बारहवें मास में चैत्र के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र एवं कर्क लग्न में कौसल्या देवी ने दिव्य लक्षणों से युक्त, सर्वलोक वन्दित जगदीश्वर श्री राम को जन्म दिया। उस समय (सूर्य, मंगल, शनि, गुरु और शुक्र) पांच ग्रह अपने अपने उच्च स्थान में विधमान थे तथा लग्न में चन्द्रमा के साथ बृहस्पति विराजमान थे।
वे विष्णु स्वरुप हविष्य या खीर के आधे भाग से प्रकट हुए थे। तदन्तर कैकेयी से सत्य पराक्रमी भरत का जन्म हुआ, जो साक्षात् भगवान विष्णु के (स्वरुप खीर के) चतुर्थांश भाग से प्रकट हुए। सुमित्रा के गर्भ से लक्ष्मण और शत्रुघ्न उत्पन्न हुए, ये दोनों विष्णु जी के अष्टमांश थे और सब प्रकार के अस्त्र शस्त्र चलाने की विद्या में कुशल शूरवीर थे।
प्रभु प्राकट्य के अवसर पर श्री अयोध्या पूरी के आकाश में गन्धर्व मधुर गीत गा रहे थे, देवता आकाश से प्रसन्न मन से सुमनवृष्टि कर रहे थे। अयोध्या पूरी में उत्सव की तैयारियां हो रही हैं, अवध पूरी के लोग गीत गा कर उत्सव मना रहे हैं।
चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को प्रभु ने पृथ्वी का भार हरने और प्रजाजन के कष्ट निवारण के लिए पृथ्वी पर अवतरण लिया। प्रति वर्ष इस तिथि पर भारत के परम्परा वादी प्रभु प्राकट्य का उत्सव मनाते हैं। चैत्र मास के शुक्ल पक्ष में रामायण कथा का पारायण एवं श्रवण का महात्मय श्री नारद जी ने श्री सनत्कुमार जी से कहा है। जिसे सनत्कुमार जी ने ऋषियों को बताया और ऋषियों ने उसका स्कन्द पुराण में विधिपूर्वक वर्णन किया है।
सन्दर्भ :-
रामनवमी महिमा – भाग १
रामनवमी महिमा – भाग २
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ततोऽब्रवीदृष्यशृंगं राजा दशरथस्तदा |
कुलस्य वर्धनं त्वं तु कर्तुमर्हसि सुव्रत ||
कुलस्य वर्धनं त्वं तु कर्तुमर्हसि सुव्रत ||
महाराज दशरथ से तब ऋषि श्रुंग ने कहा, हे राजन! मैं तुम्हारे लिए अथर्ववेद में वर्णित पुत्रेष्टि यज्ञ करूँगा, जिससे पुत्र प्राप्ति की तुम्हारी इच्छा पूर्ण होगी। यह कह पुत्र प्राप्ति के लिए, उन्होंने पुत्रेष्टि यज्ञ प्रारंभ किया, और विधिवत मंत्र पढ़ कर आहुति देने लगे। इस यज्ञ के अग्निकुंड से उस समय लाल वस्त्र धारण किये हुए एक पुरुष प्रकट हुआ, जिसके हाथ में स्वर्ण की परात थी जो चाँदी के ढक्कन से ढकी हुई थी।
ततो वै यजमानस्य पावकादतुलप्रभम् |
प्रादुर्भूतं महद्भूतं महावीर्यं महाबलम् ||
प्रादुर्भूतं महद्भूतं महावीर्यं महाबलम् ||
अग्निकुंड से प्रकट हुए पुरुष ने महाराज दशरथ की ओर देख कर कहा – महाराज ! मैं प्रजापति के पास से आया हूँ, आपकी पूजा से प्रसन्न होकर उन्होंने मुझे ये पदार्थ आपको देने को कहा है। हे नरशार्दूल! यह देवताओं की बनाई हुई खीर है, जो संतान की देने वाली तथा धन और ऐश्वर्य को बढ़ाने वाली है, इसे आप लीजिये।
वह खीर लेकर महाराज दशरथ रनवास आये और उस खीर का आधा भाग रानी कौशल्या को दे दिया। फिर बचे हुए आधे का आधा रानी सुमित्रा को दिया। उन दोनों को देने के बाद जितनी खीर बची उसका आधा भाग देवी कैकेयी को दिया, उस अम्रुतोपम खीर का बचा हुआ आँठवा भाग कुछ सोचकर फिर सुमित्रा जी को दे दिया।
कैकेय्यै चावशिष्टार्धं ददौ पुत्रार्थकारणात् |
प्रददौ चावशिष्टार्धं पायसस्यामृतोपमम् ||
अनुचिन्त्य सुमित्रायै पुनरेव महीपतिः |
एवं तासां ददौ राजा भार्याणां पायसं पृथक् ||
तबहिं रायँ प्रिय नारि बोलाईं। कौसल्यादि तहाँ चलि आईं॥
अर्ध भाग कौसल्यहि दीन्हा। उभय भाग आधे कर कीन्हा॥
कैकेई कहँ नृप सो दयऊ। रह्यो सो उभय भाग पुनि भयऊ॥
कौसल्या कैकेई हाथ धरि। दीन्ह सुमित्रहि मन प्रसन्न करि॥
प्रददौ चावशिष्टार्धं पायसस्यामृतोपमम् ||
अनुचिन्त्य सुमित्रायै पुनरेव महीपतिः |
एवं तासां ददौ राजा भार्याणां पायसं पृथक् ||
तबहिं रायँ प्रिय नारि बोलाईं। कौसल्यादि तहाँ चलि आईं॥
अर्ध भाग कौसल्यहि दीन्हा। उभय भाग आधे कर कीन्हा॥
कैकेई कहँ नृप सो दयऊ। रह्यो सो उभय भाग पुनि भयऊ॥
कौसल्या कैकेई हाथ धरि। दीन्ह सुमित्रहि मन प्रसन्न करि॥
यज्ञ-समाप्ति के पश्चात् जब छः ऋतुएँ बीत गयीं, तब बारहवें मास में चैत्र के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र एवं कर्क लग्न में कौसल्या देवी ने दिव्य लक्षणों से युक्त, सर्वलोक वन्दित जगदीश्वर श्री राम को जन्म दिया। उस समय (सूर्य, मंगल, शनि, गुरु और शुक्र) पांच ग्रह अपने अपने उच्च स्थान में विधमान थे तथा लग्न में चन्द्रमा के साथ बृहस्पति विराजमान थे।
नौमी तिथि मधु मास पुनीता। सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता॥
मध्यदिवस अति सीत न घामा। पावन काल लोक बिश्रामा॥
मध्यदिवस अति सीत न घामा। पावन काल लोक बिश्रामा॥
वे विष्णु स्वरुप हविष्य या खीर के आधे भाग से प्रकट हुए थे। तदन्तर कैकेयी से सत्य पराक्रमी भरत का जन्म हुआ, जो साक्षात् भगवान विष्णु के (स्वरुप खीर के) चतुर्थांश भाग से प्रकट हुए। सुमित्रा के गर्भ से लक्ष्मण और शत्रुघ्न उत्पन्न हुए, ये दोनों विष्णु जी के अष्टमांश थे और सब प्रकार के अस्त्र शस्त्र चलाने की विद्या में कुशल शूरवीर थे।
प्रभु प्राकट्य के अवसर पर श्री अयोध्या पूरी के आकाश में गन्धर्व मधुर गीत गा रहे थे, देवता आकाश से प्रसन्न मन से सुमनवृष्टि कर रहे थे। अयोध्या पूरी में उत्सव की तैयारियां हो रही हैं, अवध पूरी के लोग गीत गा कर उत्सव मना रहे हैं।
भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी।
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी॥
लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुजचारी।
भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी॥
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी॥
लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुजचारी।
भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी॥
चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को प्रभु ने पृथ्वी का भार हरने और प्रजाजन के कष्ट निवारण के लिए पृथ्वी पर अवतरण लिया। प्रति वर्ष इस तिथि पर भारत के परम्परा वादी प्रभु प्राकट्य का उत्सव मनाते हैं। चैत्र मास के शुक्ल पक्ष में रामायण कथा का पारायण एवं श्रवण का महात्मय श्री नारद जी ने श्री सनत्कुमार जी से कहा है। जिसे सनत्कुमार जी ने ऋषियों को बताया और ऋषियों ने उसका स्कन्द पुराण में विधिपूर्वक वर्णन किया है।
सियावर रामचन्द्र की जय
सन्दर्भ :-
- श्री रामचरितमानस भावार्थबोधिनी हिंदी टीका, श्री तुलसीपीठ संस्करण – स्वामी रामभद्राचार्य जी महाराज
- श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण (सचित्र, केवल भाषा) – गीताप्रेस गोरखपुर
- श्रीमद्वाल्मीकी रामायण (हिन्दीभाषा अनुवाद सहित) – चतुर्वेदी द्वारकाप्रसाद शर्मा
- श्री रामचरितमानस (हिंदी अनुवाद) – हनुमानप्रसाद पोद्दार – गीताप्रेस गोरखपुर
रामनवमी महिमा – भाग १
रामनवमी महिमा – भाग २
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