Ved vākhyā kī vaigyānik paddhati

SanskAI

Administrator
Staff member
वेद ज्ञान का भण्डार है , वेद समस्त ज्ञान का स्रोत है । आर्य समाज के नियम में महर्षि दयानन्द जी ने वेद की महत्ता को प्रतिपादित करते हुए कहते हैं कि, वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद को सब सत्य विद्याओं का पुस्तक बता कर ऋषि ने अपनी यह मान्यता अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में व्यक्त कर दी है, कि वेद में विविध प्रकार के ज्ञान-विज्ञानों का उपदेश किया गया है । इसी भाव को ऋषि दयानन्द जी ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के ‘वेद विषयविचार’ प्रकरण में इन शब्दों में व्यक्त किया है । “विज्ञान-काण्ड, कर्मकाण्ड, उपासना-काण्ड, और ज्ञान-काण्ड के भेद से वेदों के चार विषय हैं । अतः ज्ञान-काण्ड ऋग्वेद का विषय है , कर्मकाण्ड यजुर्वेद का विषय है, उपासना-काण्ड साम वेद का तथा विज्ञान काण्ड अथर्व वेद का विषय है ।

ऋषि दयानन्द विज्ञान काण्ड की व्याख्या करते हुए लिखते हैं कि, इनमें विज्ञान काण्ड का विषय सबसे मुख्य है ।

क्योंकि इसमें परमेश्वर से लेकर तृणपर्यन्त विषयों के सब पदार्थों का ज्ञान समाविष्ट है । जैसे कि –“तत्र विज्ञान विषयो हि सर्वेभ्यो मुख्योऽस्ति। तस्य परमेश्वरादारभ्य तृण पर्यन्त पदार्थेषु साक्षात् बोधान्वयत्वात्”।इसी प्रसंग में आगे चलकर लिखते हैं कि, “वेद में दो विद्यायें हैं – पहली अपरा विद्या और दूसरी परा विद्या । अपरा विद्या – जिससे पृथिवी और तृण से लेकर प्रकृति पर्यन्त पदार्थों के गुणों के ज्ञान से ठीक-ठीक कार्य सिद्ध करना होता है । परा-विद्या – जिससे सर्वशक्तिमान् ब्रह्म की यथावत् प्राप्ति होती है। “वेदेषु दे विद्ये वर्तेते परा अपराचेति” । इस प्रकार ऋषि ने वेद के दो विषय बताये हैं, पहला अध्यात्म-विज्ञान और दूसरा भौतिक-विज्ञान । यहाँ हम भौतिक विज्ञान की चर्चा करेंगे ।


मनुष्य को अपने वैयक्तिक, कौटुम्बिक और सामाजिक कर्तव्यों का पालन भली भांति करने के लिए यह आवश्यक है कि उसका शरीर स्वस्थ, सबल और निरोग रहे और किसी कारणवश शरीर में कोई दुर्बलता या कोई रोग आजाये तो फिर यह भी आवश्यक है कि उसकी चिकित्सा करके उसे दूर कर दिया जाये । इसके लिए शरीर की रचना का ज्ञान होना और विभिन्न रोगों तथा उनको दूर करने वाली औषधियों का ज्ञान होना भी आवश्यक है । यदि सम्भव हो तो व्यक्ति स्वयं ही अपनी चिकित्सा कर सके अथवा चिकित्सक द्वारा करवा सके ।वेद में सृष्टि के आदि में ही चिकित्सा शास्त्र विषयक आवश्यक ज्ञान का उपदेश दिया गया है ।

आज जिसे साइन्स के रूप में जानते हैं या विभिन्न टेक्नोलॉजी के माध्यम से, विभिन्न उपकरणों के माध्यम से, रोगों का उपचार किया जा रहा है । यह समस्त चिकित्सा पद्धति सृष्टि के आदि में अथर्ववेद में देखने को मिलती है । आज संसार में जो भी भौतिक ज्ञान के रूप में देखने को मिल रहा है, यह सब वेदों से ही लिया गया है लेकिन लोगों ने अपनी प्रशस्ति के लिए अपना-अपना नाम उसके साथ जोड़ दिया है । यहाँ हम चिकित्सा विज्ञान एवं आश्चर्यजनक रोग-शमन औषधियों का वर्णन अथर्ववेद में दर्शाने का प्रयास करेंगे -

रक्त प्रवाह चक्र का वर्णन :-

अथर्ववेद में शरीर में प्रवाहित होने वाले रक्त प्रवाह चक्र का वर्णन किया गया है (अथर्व. 10.2.11)। इस मन्त्र में प्रश्नात्मक शैली से कहा है कि इस शरीर में उस आपः अर्थात् जल को किसने बनाया ? जो शरीर में ऊपर की ओर तथा नीचे की ओर बढ़ता है और सब ओर बहकर हृदय में आता है। जो लाल रंग का है और लोहे से युक्त है । यहाँ आपः का अर्थ रक्त लिया गया है । इस मन्त्र में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में शरीर के रक्त प्रवाह चक्र का वर्णन है । कहा जाता है कि ईसा की 17वीं शताब्दी में इंग्लैंड के डाक्टर हार्वे ने सबसे पहले शरीर के इस रक्त प्रवाह चक्र की खोज की थी परन्तु वेद में तो यह बात सृष्टि के आदि से विद्यमान है ।

जल चिकित्सा :-

वेद में अनेक स्थानों पर जल को एक गुणकारी औषध के रूप में वर्णित किया गया है । अथर्ववेद के 1.4. सूक्त में कहा गया है कि जालों में अमृत का निवास है । जिस प्रकार अमृत शारीरिक और मानसिक रोगों को दूर करके निरोगता, स्वास्थ्य, शान्ति और दीर्घ जीवन प्रदान करता है, उसी प्रकार शुद्ध जालों के सम्यक सेवन से भी ये सब लाभ प्राप्त होते हैं । “भिषजां सुभिषक्तमा:” (अथर्व. 6.24) में जलों को चिकित्सकों से भी बड़ा चिकित्सक बताया गया है और कहा गया है कि जलों के द्वारा हृदय के रोगों का और आँखों के रोगों का भी निवारण होता है तथा पैर के तलबे और पंजों के रोगों का भी शमन होता है । अथर्ववेद के 6.57 सूक्त में कहा गया है कि जल में वह सामर्थ्य है कि बाण आदि के द्वारा कट जाने से हुए घावों को भरने की शक्ति भी रखता है । (अथर्व. 19.2.5) मन्त्र में कहा गया है कि (आपः) जलों के द्वारा यक्ष्मा (टी.बी.) रोग की भी चिकित्सा की जा सकती है।

सूर्य किरणों से चिकित्सा ( क्रोमोपैथी ) :-

वेद में सूर्य की किरणों से चिकित्सा करके पीलिया आदि रोगों के निवारण का उपदेश भी किया गया है । अथर्ववेद में कहा गया है कि सूर्य किरणों के सेवन से हृदय के रोग और उनसे जन्य हृदय की पीड़ा भी शान्त हो जाती है तथा सूर्य की लाल किरणों के (गो: रोहितेन) सेवन से पीलिया रोग भी दूर हो सकता है ।

वेद में रोग निवारक ओषधियों का वर्णन :-

वेद में अनेक औषधियों का वर्णन किया गया है, जो कि नाना प्रकार के रोगों के निवारण के लिए प्रयुक्त हो सकती हैं । उदाहरणार्थ – अथर्ववेद 10.3. सूक्त में वरुण नामक ओषधि का वर्णन मिलता है । यह औषधि यक्ष्मा रोग और नींद न आना तथा इसके कारण बुरे-बुरे स्वप्न आते रहना रूपी रोग की चिकित्सा के रूप में प्रयुक्त की जा सकती है । (अथर्व. 2.25) में ‘पृश्नि पर्णी’ औषधि का वर्णन है । जो रोग शरीर का रक्त पीकर दुर्वलता उत्पन्न कर देते हैं, शरीर के सौंदर्य को नष्ट कर देते हैं, स्त्रियों में गर्भ बनने नहीं देते हैं या गर्भ असमय में गिर जाने का कारण बनते हैं, ऐसे रोगों के उपचार के लिए यह औषधि प्रयुक्त होती है ।

अथर्ववेद के 4.12. सूक्त में रोहिणी नामक औषधि का वर्णन है । यह औषधि तलवार आदि से कटी हुई हड्डियों को मांसपेशियों को, त्वचा को, नस-नाड़ियों को, जोड़ सकती है और व्रण से बहते रुधिर को बंद कर सकती है । इसके अतिरिक्त इसी काण्ड के 17वें सूक्त में अपामार्ग औषधि का वर्णन है, यह औषधि अत्यधिक भूख लगने रूप रोग तथा अत्यधिक प्यास लगने रूपी रोग में काम आती है । अथर्व. 6.43. में दर्भ नामक औषधि का वर्णन है, यह औषधि क्रोधशील व्यक्ति के क्रोध को शमन करने में समर्थ है । अथर्व. 5.4. सूक्त में कुष्ठ औषधि का वर्णन है, जो कि प्राण और व्यान के कष्टों को शान्त करती है ।

पुत्रदा औषधि :-

अथर्ववेद 6.11. सूक्त में एक ऐसी औषधि का वर्णन है जिसके सेवन से उस स्त्री को पुत्र हो सकता है जिसकी पुत्रियाँ ही होती हों और पुत्र न होता हो । इस सूक्त में लिखा है कि शमी अर्थात् जंड (जांडी) नामक वृक्ष के ऊपर पीपल का वृक्ष उगा हुआ हो तो उस पीपल को औषधि रूप में खिलने से उस स्त्री को पुत्र हो सकता है । सामान्यतः वृक्ष के फूल, पत्ते, छाल, और जड़े छाया में सुखा कर उसका बारीक़ चूर्ण बनाकर पानी या गौ के दूध के साथ सेवन कराया जाता है । इसपर कई लोगों ने परीक्षण करके देखा है, यह बात सत्य सिद्ध हुई है । इससे या ज्ञात होता है कि वेदों में सब सत्य ज्ञान निहित है । जो कुछ आज विक्सित टेक्नोलॉजी के रूप में देख रहे हैं, वह सब वेद से ही ली गयी है और यह जो संसारभर में अनेक ज्ञान-विज्ञान देखा-जाना जा रहा है वह एक राई के दाने के समान है । इसके अतिरिक्त अथाह ज्ञान वेदों में विद्यमान है । आवश्यकता है वेदों के ज्ञान को जानकर संसार को जनाने की ।

वेदों में चिकित्सा के क्षेत्र में भी आश्चर्य जनक औषधियों का वर्णन प्राप्त होता है और प्राचीन युग में ये औषधियाँ प्रचलित भी थी लेकिन जब हमने वेद तथा आयुर्वेद आदि को पढ़ना-पढ़ाना छोड़ दिया तो अज्ञानता के कारण उन औषधियों के नाम, स्वरुप, गुण धर्म आदि पहचान करने में असमर्थ हो गए और उनसे होने योग्य लाभों से वंचित रह गए । आज भी यदि हम फिर से वेदों का अध्ययन करने लग जाएँ तो हम चिकित्सा के क्षेत्र में तथा अन्य सभी क्षेत्र में जिसके लिए हम अन्य देशों से सहायता प्राप्त करते हैं, वह हम स्वयं उत्कृष्ट स्तर बना सकते हैं और सभी की दृष्टि में आदर्श स्थापित करके फिर से विश्व गुरु कहला सकते हैं । आचार्या सुशीला आर्या
 
Top