हम मानव होने का परिचय कैसे दें ?

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Mahender Pal Arya

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हम मानव होने का परिचय कैसे दें ?
मानव होने का परिचय सिर्फ और सिर्फ ईश उपासना ही है | अर्थात मानवों में और जीवों में यही भेद है की मानव उपसना करता है और जीवजन्तु नहीं |

अब सवाल यह पैदा होता है की जब उपासना ही मानव होने का परिचय है ,तो यह भी जानना ज़रूरी होगा की उपासना क्या है,क्यों है, किसकी है और कैसी है?

इन सभी सवालों का जानना भी मानवों का काम है मानवों से अलग कोई प्राणी इसे नहीं जान सकता | अर्थात एक शब्द में पूजा या उपासना क्या ,क्यों कैसी और किसकी करनी चाहिए यह जानना जरूरी है ?

इसका ज़वाब है उपासना परमात्मा की, क्यों = का उत्तर है मानव होने का प्रमाण या परिचय देना है | और कैसी का उत्तर है = ऋषि मुनियों ने जो तरीका बताया है उसके अनुसार – उस रतिका को अपनाने के लिए परमात्मा का जानना बहुत जरूरी होगा | कारण अगर परमात्मा को जाना ही नहीं तो वे उपासना कैसे और किसकी करें ?

परमात्मा को जानने के लिए जो कसौटी है परख है उसे जानना व समझना पड़ेगा. उससे पहले परमात्मा की उपासना हो ही नहीं सकती | मन्दिर में मूर्ति के सामने घंटी बजाने का नाम उपासना नहीं है | मूर्तियों के सामने हाथ जोड़ना भी उपासना नहीं है | और न मूर्तियों के सामने सर झुकाना ही उपासना है |

यही तो सब जानने और समझने की चीज है, मूर्ति के सामने कोई सर झुकाए उसके सामने हाथ जोड़े उस बेजान मूर्ति को यह पता ही नहीं की उसके सामने कोई हाथ जोड़ रहा है नत मस्तक हो रहा है | कारण मूर्ति जड़ है और जडकी पूजा सर्वथा अमानवीय है | कारण मानव होकर भी अगर इतनी समझ न हो की जिसके सामने हम हाथ जोड़ रहे हैं उसे पता ही नहीं – अगर यह बात वह नहीं समझता है तो वह मानवता को भी त्याग दिया |

कारण मानवता वही है जो वस्तु जैसा है उसे ठीक ठीक वैसा ही जाननाऔर मानना ही मानवता है | और मानव होने के नाते इसकी जानकारी पूरी पूरी होनी चाहिए | अगर मानव होकर या कहला कर जड़ और चेतन को नहीं जनता तो वह मानव कहलाने के अधिकारी नहीं है |

यही कारण बना मानव मात्र के लिए की वह परमात्मा को जाने और उसकी उपासना करें | अगर मानव होकर भी वह परमात्मा को नहीं जानता तो वह परमात्मा को तुमही हो माता पिता तुम्ही हो कहना छोड़ देना चाहिए जब पिता को वह जानता ही नहीं है तो वह किसे पिता कहता है ?
इसे कहते हैं अंध विश्वास जो मानवता विरोधी है | मानव होने का परिचय यही है अज्ञानता से दूर होना या असत्य को त्याग देना और सत्य का धारण करना ही है |

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