- 1. बालक विद्यालय जाता है।
- 2. झरने से अमृत को मथता है।
- 3. राम के सौ रुपये चुराता है।
- 4. राजा से क्षमा माँगता है।
- 5. सज्जन पाप से घृणा करता है।
- 6. विद्यालय में लड़के और लड़कियाँ है।
- 7. मैं कंघे से बाल सँवारता हूँ।
- 8. बालिका जा रही है।
- 9. यह रमेश की पुस्तक है।
- 10. बालक को लड्डू अच्छा लगता है।
- 11. माता-पिता और गुरुजनों का सम्मान करना उचित है।
- 12. जो होना है सो हो, मैं उसके सामने नहीं झुकूँगा।
- 13. वह वानर वृक्ष से उतरकर नीचे बैठा है।
- 14. मेरी सब आशाओं पर पानी फिर गया।
- 15. मैने सारी रात आँखों में काटी।
- 16. गुरु से धर्म पूछता है।
- 17. बकरी का दूध दुहता है।
- 18. मन्दिर के चारों ओर भक्त है।
- 19. इस आश्रम में ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और संन्यासी हैं।
- 20. नाई उस्तरे से बाल काटता है।
- 21. रंगरेज वस्त्रों को रंगता है।
- 22. मन सत्य से शुद्ध होता है।
- 23. आकाश में पक्षी उड़ते हैं।
- 24. उसकी मूट्ठी गर्म करो, फिर तुम्हारा काम हो जाएगा।
- 25. कुम्भ पर्व में भारी जन सैलाब देखने योग्य है।
- 26. विद्याविहीन मनुष्य और पशुओं में कोई भेद नहीं है।
- 27. उसकी ऐसी दशा देखकर मेरा जी भर आया।
- 28. प्रभाकर आज मेरे घर आएगा।
- 29. एक स्त्री जल के घड़े को लेकर पानी लेने जाती है।
- 30. मैं आज नहीं पढ़ा, इसलिये मेरे पिता मुझ पर नाराज थे।
- 31. मे घर जाकर पिता से पूछ कर आऊँगा।
- 32. व्यायाम से शरीर बलवान् हो जाता है।
- 33. उसके मूँह न लगना, वह बहुत चलता पुरजा है।
- 34. मेरे पाँव में काँटा चुभ गया है, उसे सुई से निकाल दो।
- 35. एक बार धर्म और सत्य में विवाद हुआ।
- 36. सूर्य की प्रखर किरणों से वृक्ष, लता सब सूख जाते हैं।
- 37. ईश्वर की कृपा से उसका शरीर नीरोग हो गया।
- 38. राम के साथ सीता वन जाती है।
- 39. मुझे इस बात के सिर पैर का पता नहीं लगता।
- 40. सुबह उठकर पढ़ने बैठ जाओ।
- 41. पति के वियोग से वह सुखकर काँटा हो गयी है।
- 42. चपलता न करो इससे तुम्हारा स्वभाव विगड़ जायेगा।
- 43. घर के बाहर वृक्षः है।
- 44. शकुन्तला का पति दुष्यन्त था।
- 45. विष वृक्ष को भी पाल करके स्वयं काटना ठीक नहीं है।
- 46. अध्यापक की डाँट सुनकर वह लज्जा से सिर झुकाकर खड़ी हो गयी।
- 47. अरे रक्षकों! आप जागरुकता से उद्यान की रक्षा करो।
- 48. इन दिनों वस्तुओं का मूल्य अधिक है।
- 49. आज सुबह कार्यक्रम का उद्घाटन हुआ।
- 50. पुस्तक पढ़ने के लिए वह पुस्तकालय जाता है।
- 51. हस्तलिपि को साफ एवं शुद्ध बनाओ।
- 52. पढ़ने के समय दूसरी ओर ध्यान मत दो।
- 53. विद्यालय के सामने सुन्दर उद्यान है।
- 54. सुनार सोने से आभूषण बनाता है।
- 55. लुहार लोहे से बर्तन बनाता है।
- 56. ईश्वर तीनों लोकों में व्याप्त है।
- 57. देश की उन्नति के लिए आयात और निर्यात आवश्यक है।
- 58. रिश्वत लेना और देना दोनों ही पाप है।
- 59. बुद्धि ही बल से श्रेष्ठ है।
- 60. बुरों का साथ छोड़ और भलों की सङ्गति कर।
- 61. एक दिन महर्षि ने ध्यान के समय दूर जङ्गल में धधकती हुई आग को देखा।
- 62. एक समय राजा दिलीप ने अश्वमेध यज्ञ करने के लिए एक घोड़ा छोड़ा।
- 63. आप सभी हमारे साथ संस्कृत पढें।
- 64. बालकों को मिठाई पसंद है।
- 65. बहन! आज आने में देर क्यों?
- 66. मित्र! कल मेरे घर आना।
- 67. घर के दानों ओर वृक्ष है।
- 68. मैं साइकिल से पढ़ने के लिए पुस्तकालय जाता हूँ।
- 69. विद्यालय जाने का यही समय है।
- 70. सूर्य निकल रहा है और अंधेरा दूर हो रहा है।
- 71. पुराणों में कथा है कि एक बार धर्म और सत्य में विवाद हुआ। धर्म ने कहा- ‘मैं बड़ा हूँ’ सत्य ने कहा ‘मैं’। अन्त में फैसला कराने के लिए वे दोनों शेषजी के पास गये। उन्होंने कहा कि ‘जो पृथ्वी धारण करे वही बड़ा’’। इस प्रतिज्ञा पर धर्म्म को पृथ्वी दी, तो वे व्याकुल हो गये, फिर सत्य को दी, उन्होंने कई युगों तक पृथ्वी को उठा रखा।
- 72. संस्कृत भाषा देव भाषा है। प्रायः सभी भारतीय भाषाओं की जननी और प्रादेशिक भाषाओं की प्राणभूत है। जिस प्रकार प्राणी अन्न से जीवित रहता है। परन्तु वायु के बिना अन्न भी जीवन की रक्षा नहीं कर सकता, उसी प्रकार हमारे देश की कोई भी भाषा संस्कृत भाषा के बिना जीवित रहने में असमर्थ है इसमें कोई संशय नहीं है। इसी भाषा में हमारा धर्म, इतिहास और भविष्य सबकुछ निहित है।
संस्कृत-हिन्दी अनुवाद
1. आहारे व्यवहारे च त्यक्तलज्जः सुखी भवेत्।आहार और व्यवहार में संकोच न करने वाला सुखी रहता है।
- 2. अन्यायं कुरुते यदा क्षितिपतिः कस्तं निरोद्धुं क्षमः?
- 3. रामः भृत्येन कार्यं कारयति।
- 4. यावत्यास्यन्ति गिरयः सरितश्च महीतले तावद्रामायणकथा लोकेषु प्रचरिष्यति।
- 5. लंकातो निवर्तमानं रामं भरतः प्रत्युज्जगाम।
- 6. इयं कथा मामेव लक्षीकरोति।
- 7. मनो में संशयमेव गाहते।
- 8. कालस्य कुटिला गतिः।
- 9. नियमपूर्वकं विधीयमानो व्यायामो हि फलप्रदो भवति।
- 10. अल्पीयांस एव जना धर्मं प्रति बद्धादरा दृश्यन्ते।
- 11. यथा अपवित्रस्थानपतितं सुवर्ण न कोऽपि परित्यजति तथैव स्वस्मात् नीचादपि विद्या अवश्यं ग्राह्या।
- 12. गङ्गायां स्नानाय श्री विश्वानाथस्य दर्शनाय च सदैव भिन्न-भिन्न प्रदेशेभ्यः जनाः वाराणसीम् आगच्छन्ति।
- 13. चरित्र निर्माणे संसर्गस्यापि महान् प्रभावो भवति, संसर्गात् सज्जना अपि बालकाः दुर्जनाः भवन्ति दुर्जनाश्च सज्जनाः।
- 14. मनुष्याणां सुखाय समुन्नतये च यानि कार्याणि आवश्यकानि सन्ति तषु सर्वतोऽधिकम् आवश्यकं कार्यं स्वास्थ्यरक्षा अस्ति।
- 15. प्राचीनकाले एतादृशा बहवो गुरुभक्ता बभूवः येषामुपारव्यायनं श्रुत्वा पठित्वा च महदाश्चर्यं जायते।
- 16. नाम्ना स सज्जनः परन्तु कर्म्मणा दुर्जनः।
- 17. एकदा कस्मिंश्चिद्वने अटन् एकः सिंहः श्रान्तो भूत्वा निद्रां गतः।
- 18. सः सर्वेषां मूर्ध्नि तिष्ठति।
- 19. मम द्रव्यस्य कथं त्वया विनियोगः कृतः?
- 20. इति लोकवादः न विसंवादमासादयति।
- 21. राजा युगपत् बहुभिररिभिर्न युध्येत्, यतः समवेताभिर्बह्नीभिः पिपीलिकाभिः बलवानपि सर्पः विनाश्यते।
- 22. प्राज्ञो हि स्वकार्यसम्पादनाय रिपूनपि स्वस्कन्धेन वहेत्। मानवाः दहनार्थमेव शिरसा काष्ठानि वहन्ति।
- 23. कियत्कालम् उत्सवोऽयं स्थास्यति? अपि जानासि अत्र का किंवदन्ती?
- 24. तद् भीषणं दृश्यमवलोक्य तस्याः पाणिपादं कम्पितुमारेभे।
- 25. तेषां कांश्चिद् दोषानन्तरेणापि ते सन्देहास्पदं बभूवुः।
- 26. मुहूर्तेन धारासारैर्महती वृष्टिबर्भूव। नभश्च जलधरपटलैरावृतम्।
- 27. सचचिवो राजपुत्रः सरस्तीरे विशालं महीरुहम पश्यत्, अगणिता यस्य शाखा भुजवत् प्रतिभान्ति स्म।
- 28. न हि संहरते ज्योत्स्नां चन्द्रश्चाण्डावलेश्मनः।
- 29. ये समुदाचारमुच्चरन्ते तेऽवगीयन्ते।
- 30. राजा महीपालः हस्तिनमारुह्य बहूनि वनानि भ्रमित्वा स्वमेव द्वीपं प्रतिगच्छति स्म।
- 31. यदाहं तव भाषितं परिभावयामि तदा नात्र बहुगुणं विभावयामि।
- 32. अचिरमेव स वियोगव्यथाम् अनुभविष्यति।
- 33. युक्तमेव कथयति भवान् नाहं भवतस्तर्के दोषं विभावयामि।
- 34. ये शरीरस्थान् रिपून् अधिकुर्वते ते नाम जयिनः।
- 35. विद्या सर्वेषु धनेषु श्रेष्ठमस्ति यतो हि विद्यैव व्यये कृते वर्धते। अन्यद् धनं व्यये कृते क्षयं प्राप्नोति।
- 36. महात्मनो गांधिमहोदयस्य संरक्षणे अहिंसा शस्त्रेणैव भारतवर्षं पराधीनतापाशं छित्वा स्वतन्त्रतामलभत।
- 37. ब्रह्मचर्य वेदेऽपि महिमा वर्णितोऽस्ति यद् ब्रह्मचर्यस्य सदाचारस्य वा महिम्ना देवा मृत्युमपि स्ववशेऽकुर्वन।
- 38. गुरुभक्त्यैव आरुणिः ब्रह्मज्ञः सञ्जातः, एकलव्यश्च महाधनुर्धरो जातः।
- 39. आविर्भूते शशिनि अन्धकारस्तिरोऽभूत्।
- 40. अयं मल्लः अन्यस्मै मल्लाय प्रभवति।
- 41. गुणा विनयेन शोभन्ते।
- 42. सत्यस्य पालनार्थमेव महाराजो दशरथः प्रियं पुत्रं रामं वनं प्रैषयत्।
- 43. एकमेवार्थमनुलपसि, न चान्यं श्रृणोषि।
- 44. पूर्वं स त्वां सम्पत्तिं बन्धकेऽददात् साम्प्रतं ऋणशोधनेऽक्षमतामुद्घोषयति।
- 45. मज्जतो हि कुशं वा काशं वाऽवलम्बनम्।
- 46. गोपालस्तथा वेगेन कन्दुकं प्राहरत् यथाऽऽदर्शः परिस्फुट्य खण्डशोऽभूत्।
- 47. चिरंविप्रोषितो रुग्णश्चासौ तथा परिवृत्तो यथा परिचेतुं न शक्यः।
- 48. यद्यसौ संतरणकौशलम् अज्ञास्यत् तर्हि जलात् नाभेष्यत्।
- 49. वृक्षम् आरुह्य असौ सुगन्धिपुष्पसंभारां क्षुद्रशाखां बभञ्ज।
- 50. केन साधारणीकरोमि दुःखम्?
- 51. निद्राहारौ नियमात्सुखदौ।
- 52. बुभुक्षितं न प्रतिभाति किञ्चत्।
- 53. शनैः शनैश्च भोक्तव्यं स्वयं वित्तमुपार्जितम्।
- 54. विषयप्यमृतं क्वचिद् भवेदमृतं वा विषमीश्वरेच्छया।
- 55. अङ्गारः शतधौतेन मलिनत्वं न मुञ्चति।
- 56. अतीत्य हि गुणान्सर्वान् स्वभावो मूर्ध्नि तिष्ठति।
- 57. भूयोऽपि सिक्तः पयसा घृतेन न निम्बवृक्षो मधुरत्वमेति।
- 58. सर्वत्र विजयमिच्छेत् पुत्रात् शिष्यात् पराभवम्।
- 59. स्थानभ्रष्टा न शोभन्ते दन्ताः, केशाः, नखाः, नराः।
- 60. सर्वस्य जन्तोर्भवति प्रमोदो विरोधिवर्गे परिभूयमाने।
- 61. यद्यपि शुद्धं लोकविरुद्धं नाचरणीयम्।
- 62. रिक्तपाणिर्न पश्येत् राजानं देवतां गुरुम्।
- 63. यथा हि कुरुते राजा प्रजास्तमनुवर्तते।
- 64. ये गर्जन्ति मुहुर्मुहुर्जलधरा वर्षन्ति नैतादृशाः।
- 65. धर्मं जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रृतिः।
- 66. यदेव रोचते यस्मै भवेत्तत्तस्य सुन्दरम्।
- 67. मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।
- 68. लिखितमपि ललाटे प्रोज्झितुं कः समर्थः?
- 69. लोभात्क्रोधः प्रभवति लोभात्कामः प्रजायते।
- 70. सन्तोषेण विना पराभवपदं प्राप्नोति सर्वो जनः।
- 71. पुराकाले धौम्यमहषेर्ः आश्रमः आसीत्। तत्र एकदा महती वृष्टिः जाता। कृषिक्षेत्रं प्रति अधिकं जलम् आगच्छति स्म। ‘तत् रुणद्धु ’ इति शिष्यं अवदत् धौम्यः। शिष्यः मृत्तिकया जलप्रवाहं रोद्धुम् प्रयत्नम् अकरोत् किन्तु सः न शक्तः। अन्ते स्वयम् एव तत्र शयनं कृत्वा जलप्रवाहं रोद्धुम् अयतत। बहुकालानन्तरम् अपि शिष्यः न प्रत्यागतः इत्यतः धौम्यः स्वयं कृषि क्षेत्रम् अगच्छत्। शिष्यस्य साहसं दृष्ट्वा सन्तुष्टः गुरुः तस्मै ज्ञानम् अद्दात्। तस्य शिष्यस्य नाम आसीत् आरुणिः। उद्दालकः इति तस्य ऊपरं नाम।
- 72. एकः संन्यासी आसीत्। तस्य हस्ते सुवर्ण कङ्कणम् आसीत। संन्यासी अघोषयत् यत् ‘परमद्ररिद्रस्य कृते एतत् दास्यामि।’ बहवः दरिद्राः आगताः। संन्यासी कस्मैचिदपि सुवर्णकङ्कणं न अददात्। एकदा तेन मार्गेण राजा आगतः। संन्यासी तस्मै सुवर्णकङ्कणम् अददात्। ‘‘अहं राजा। मम विशालं राज्यम्, अपारम् ऐश्वर्यं च अस्ति। अहं दरिद्रः न। तथापि मह्यं किमर्थम् एतत् दत्तम्?’’ इति राजा अपृच्छत्। ‘राज्यं विस्तारणीयम्। सम्पत्तिः वर्धनीया इत्येवं भवतः बह्नयः आशाः। यस्य आशाः अधिकाः स एव दरिद्रः। अतः मया भवते सुवर्णकङ्कणं दत्तम्’ इति अवदत् संन्यासी।